Friday, January 20, 2012

पन्ना

मैं लिखती थी.. जब तुम पढ़ते थे ..


ये सोचकर कि जो कह नहीं पाती.. वो बातें पन्नो पर पड़ी मिल जाए तुमको..
वो शब्द जो बन नहीं पाते.. जब बोलती हूँ बहुत.. पर कह नहीं पाती..
वो सब सुन लोगे मेरी चुप्पी कि आवाज़ में तुम..

अब न बातें हैं.. ना शब्द .. ना कोई किस्से.. 
अब लिखना भी क्या लिखना.. न रही मैं.. न हम ...

गुत्थी



हर शक्स इक सवाल है..


कि कैसे जिंदा है ज़िन्दगी जीकर..
शायद आहें मज़ाक लगती हैं..

तानेबानों में गुम गए हैं खुद..
सूनी सड़कें सुकून देती हैं..

रातें शरीक कर बीते दिनों की बातें 
दिन ढले महफ़िल जवान करती हैं ..

अँधेरे कि बत्तियां सी बना 
धीरे धीरे से आज..  मेरी रूह जलती है..