Friday, January 20, 2012

गुत्थी



हर शक्स इक सवाल है..


कि कैसे जिंदा है ज़िन्दगी जीकर..
शायद आहें मज़ाक लगती हैं..

तानेबानों में गुम गए हैं खुद..
सूनी सड़कें सुकून देती हैं..

रातें शरीक कर बीते दिनों की बातें 
दिन ढले महफ़िल जवान करती हैं ..

अँधेरे कि बत्तियां सी बना 
धीरे धीरे से आज..  मेरी रूह जलती है..


6 comments:

  1. "अँधेरे कि बत्तियां सी बना
    धीरे धीरे से आज.. मेरी रूह जलती है.." -- \m/ .. awesome

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  2. चलो बैठकर
    समय की सुई रोकते हैं
    मुट्ठी में भरकर
    उसे पीछे खींचते हैं
    गाहे बगाहे टूट भी गयी
    तो नींबू का स्वाद
    और भरी धूप में
    तौलिये के नीचे छुपकर सोने की
    याद तो होगी. :)

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  3. yaadein zaroor hain.. harweekend taazi bhi hoti hain :) <3

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  4. " अँधेरे कि बत्तियां सी बना
    धीरे धीरे से आज.. मेरी रूह जलती है.."
    वाह! उत्तम

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  5. और सवाल पूछना मना है।

    सुन्दर सृजन।

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  6. सुन्दर रचना

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