Wednesday, September 29, 2010

बचपन का लिफ़ाफ़ा

बंद  लिफ़ाफे  में  पोस्ट  की  हैं  अभी .. 
थोड़ी  सी  याद .. थोड़ी  सी  हँसी ...
थोड़े  से  बचपन  के  किस्से .. थोड़ी  सी  अलसाई  जाड़े  की  शाम ...
थोड़ा  सा  गुलाबी  आसमान .. एक  छोटा  गुदगुदा  बादल ..
आटे  की  चक्की  तक  की  सैर ... गोलगप्पों  का  तीखा  पानी ...
कुछ  जंगली  फूल .. स्कूल  की  चौक  ..
वैकेशन  का  होमेवोर्क .. नयी  किताबों  की  खुशबू ..
पर  खाली  सा  था  लिफ़ाफ़ा  अब  भी   ...
जगह  बाकी  थी  काफी ..
पर  अगला  लिफ़ाफ़ा  रूठ  जाता 

Saturday, September 25, 2010

किस्से




अम्मा  बाबा .. नाना  नानी ... 
चले  गए  अपने  किस्सों  के  साथ ...

खुशबू  याद  है  पर  उनकी ..

दादी  नानी  की  में  आंवले  के  तेल  की  मिलावट  है ..
बाबा  की शाम  के  चाय  के  साथ  वाले  बिस्किट सी ..
नानाजी  में  उरद  की  खिचड़ी  के  तड़के  की  तेज़ी ...

सवेरे  की  आरती  सी  आवाज़ ... 
कभी  कभी  बुद्ध  के  कीर्तन  से  जोश  में  बजती  है  कानो  में  ...

शाम  की  सैर  में  कदम  हलके  हलके  से ..  फिर  उतने  भी  नहीं ...
रात  में  दूध  के  गर्म  गिलास  या  कॉफ़ी  सी  गुनगुनी  बातें ..
कुछ  शिकायतें  भी ..

अब  ये  हमारे  किस्से  हैं ..



Friday, September 24, 2010

उपसंहार




तुम पर  लिखना  चाहती  हूँ  कुछ .. 
डर  है  कि  .. तुम  पढ़  लोगे ..

कविता  खुद  को  रोक  रही  है .. 
बनते  बनते  भूल  रही  है ..

शब्द  हो  रहे  छिन्न  भिन्न  सब .. 
पहले  खुश  थे  खिन्न  खिन्न  अब ..

स्याही  बहती  हर  पन्ने  पर ..
थोड़ी  काली .. धुंदली  है  पर ...

कागज़  होता  दो  टुकडो  में ..
धीरे  धीरे .. हर  कोने  से ..

भाव  हमेशा  अस्तव्यस्त  थे ...
पहले  से  भी  अब  उलझे  हैं ..

उलटे  पुल्टे  सारे  ये  अब ..
कुछ  कुछ  कहते  फिर  भी  हैं  सब ..

इस  कुछ  कुछ  को  तुम  मत  पढना ..
पढ़  भी  लो  तो  याद  न  करना ..

याद अगर आ जाए तो फिर  ..

धीरे धीरे सासें भरकर...
दस तक तुम गिनती कर लेना..

कच्ची नींद का सपना था  ये ..
पल दो पल का किस्सा था ये ..

हाथ कि मुट्ठी ढीली छोडो ..
रेत ही बाकी.. बहने दो अब ...

Wednesday, September 22, 2010

बटवारा

बटवारा.. आधा आधा ...

सब यादें.. 
सब बातें..
सब झगड़े..
सब रातें..

अब सूनापन..
सारे आंसूं..
ताने.. गाने.. 
ढेर बहाने ...

संग भूलेंगे .. धीरे धीरे..
भूलेंगे अब.. आधा आधा ..

Tuesday, September 21, 2010

हम


नाज़  से  चलते  हैं  ... कहीं  को  भी  तो  नहीं ...
फक्र  से  कहते  हैं .... कि  गुम  से  हैं  चुपचाप ...
हँस  के  फिर  छूते   हैं ... कि  महसूस  न  होता ...
टकटकी  सी  बाँध .. कि  धुन्दला  रहा  है  सब ...

Monday, September 20, 2010

नीलकंठ

नीलकंठ ...

दूर  झील  में  बैठा ... टैक्सी की  खिड़की  से  देखा ...
झटपट ... आँखें  बंद  करीं ...
एक  मनचाही  बात  मन  में  दोहरा  ली ...

फिर  सोचा ... 

क्या  नीलकंठ  भी  दूसरे  नीलकंठ  को  देख  आंख  मूँद  लेता  होगा ?...
या  चुपचाप  शीशे  में  देख  .. खुद  को .. निहारता  नहीं  ... कुछ  मन  ही  मन  मांग  लेता  होगा ...

क्या  किसी  मालदार .. 
क्लास  में  अव्वल  ... 
सबसे  खूबसूरत .. 
लम्बी  उम्र  वाले  
नीलकंठ  को  देखा  है  आपने ?

खिड़की के बाहर

खिड़की  के  बाहर ...
घुटन  ऐसी ... कि  कमरे  की  सीलन  .. पहली  बारिश  सी ...
खुशबू  भी  खुश  नहीं  है  आज ...
खुला  आसमान ... गुफा  से  काला ...
चिड़िया .. गिद्ध  का  साया ...
घास .. काटों  की  हैं  तारें ...
पेड़  कि  शाख .. जेल  कि  बेड़ियाँ ...
पहले  पहल  समा  खुशरंग  था .. अब  न  खुश  है .. न  रंग ...
ये  सब  तेरे  बिना  है  क्योंकि .. कोई  और  कहानी .. तेरे  संग ...



सवेरा

सवेरा .. 
शाम  से  धुन्दला .. रात  से  काला ...      
सवेरा  यूँ  कि  जैसे  कब्र  पर  रोता  हुआ  चेहरा ... 
घनेरे  संकरे  रस्ते  पे  जैसे  मौत  का  पहरा ...

Sunday, September 19, 2010

बादल

नाराज़ था बादल ..
भरा  बैठा  था ... गुस्से  से ...
आंसूं  रोक  कर ..

बहुत  साल  रोका ...
बहुत  बार  सोचा ..
बहुत  बार  खुद  को  ही  बढ़  चढ़  के  टोका ..

पता  था  उसको  कि  गुस्से  में  वो  बेकाबू  हो  जाता  है ...
किसी  बेक़सूर  पर  उतार  देगा ...

खैर .. सालों  बाद  उसका  दोस्त  मोंसून ..
लम्बे  वक़्त  के  लिए  घर  आया ...
मोंसून  नेता  किस्म  का  था ..
हर  साल  नहीं  आता  था ..
आता  भी  था  तो  एक  झलक  दिखला  के  चला  जाता  था ..

पर  इस  बार  मोंसून  लम्बी  छुट्टी  लेकर  आया  था ...
बहुत  दिन  रुका ..
सबका  मन  बहलाया ..
पर  नेता  मोंसून  कि  फितरत  ही  ख़राब  थी ..
बरसो  से  नाराज़  बादल  को  घर  बुलाया ...
हसी  मज़ाक  की ..
फिर  बोला  कि  बड़े  दिनों  से  तुम्हारा  गरजना  सुन  रहे  हैं ..
सुना  है  कि  तुम  बरसते  नहीं .. बिजली  बता  रही  थी ..

बादल  गुस्से  से  काला  पड़ने  लगा .. 
जैसे  तैसे  खुद  को  रोका ..
सोचने  लगा  कुछ  गलत  हो  जाए  उससे  पहले  हिमालय  में  जाकर ..
संन्यास  ले  लेता  हूँ ..

पहली  गाडी  से  अल्मोड़ा  निकल  लिया ...
पर  अकेले  नहीं ..
अपने  गुस्से  और  मोंसून  की  खिल्ली  के  साथ ..

फिर  एक  दिन  रोक  नहीं  पाया ..
न  आंसू  ..
न  गुस्सा ,..
न  सालो  का  किस्सा ..

नसें  तानी  थी ..
धड़कन  ट्रेन  सी  तेज़ ..
जोर  से  ज़मीन  पर  गिरा ...

बादल  फट  पड़ा ..

सपना

दरवाज़ा खुला छोड़ देना..रात में सपनों को दरवाज़ा न खटखटाना पड़े..
दादी थक जाती थी वैसे भी..

बाबा  का  तो  रौब  अलग  था .. आएँगे  तो  बुलवाने  पर...खुद नहीं ...
तो  उनको  याद   कर  लेती  हूँ  कि   आजाइयेगा  फुर्सत  से...

बचपन  की  यादें  भी  आएंगी ... स्कूल  जाती  हुई  मैं...
स्कूल  की  घंटी  पर  दौड़  लगते  खटखटाना  किसे   याद  रहेगा...

लंच  में  मिर्च  के  अचार  के  चटखारो  में  मन  लगता  था   ऐसा  कि...
अब  सपने  में  पानी  पीना  पड़ता  है ...

शाम  को  दोस्तों  के  गुड्डे  से  शादी   करानी  होती  थी  गुड़िया  की..
उस  शोर  गुल  में  दस्तक   सुनाई  ही  कहाँ  देगी..

लखनऊ  की  गलियां  याद  आए  तो  अलग  है  बात...
कि  ऐसा  था  अदब...  कि  खटखटाना ... शौक  ही  सा  था...