बचपन से किस्से बहुत सुने..
घर पर थोड़े.. कुछ औरों से..
नफरत.. फितरत.. कुदरत.. हज़रत...
हर रोज़ सुने.. सोते जगते..
लगता था ये तो गप शप हैं..
गप्पें.. बातें.. ऊबी रातें..
अब लगता है हम सब किस्से..
कुछ पूरे हैं.. कुछ के हिस्से..
हर दिन किस्सा बढ़ जाता है..
कुछ पन्ने नए बढ़ाता है..
पर किस्से कुछ दिन चलते हैं..
भूलेंगे सब.. शायद हम सब..
क्यूंकि हम हैं.. हम सब शायद ..
हैं बस हम सब..
शायद.. अफ़वाह..