Thursday, November 18, 2010

शायद..


बचपन से किस्से बहुत सुने..
घर पर थोड़े.. कुछ औरों से..
 
नफरत.. फितरत.. कुदरत.. हज़रत...
हर रोज़ सुने.. सोते जगते..
 
लगता था ये तो गप शप हैं..
गप्पें.. बातें..  ऊबी रातें..
 
अब लगता है हम सब किस्से..
कुछ पूरे हैं.. कुछ के हिस्से..
 
हर दिन किस्सा बढ़ जाता है..
कुछ पन्ने नए बढ़ाता है..
 
पर किस्से कुछ दिन चलते हैं..
भूलेंगे सब.. शायद हम सब..
क्यूंकि हम हैं.. हम सब शायद ..
हैं बस हम सब..
शायद.. अफ़वाह..
 
 
 

स्मृति-वन

आँखों के आगे ऐसे हैं... आँखों में बैठा आंसूं हो..
थोड़ी खट्टी.. थोड़ी मीठी.. बचपन का इमली चूरन हो..

हम भूले भी तो क्या भूले..
हम.. हम हैं.. क्यूंकि तुम, तुम हो..
कभी बंद हुई.. फिर खुल जाए.. टूटे डिब्बे का ढक्कन हो..

गाना अब तक जो सुनती हूँ.. अपने ही ऊपर लगता है..
कभी रोती हूँ... कभी हँस देती..
टूटी चूड़ी की खन खन हो..

हर याद तुम्हारी .. याद नहीं.