Thursday, November 18, 2010

स्मृति-वन

आँखों के आगे ऐसे हैं... आँखों में बैठा आंसूं हो..
थोड़ी खट्टी.. थोड़ी मीठी.. बचपन का इमली चूरन हो..

हम भूले भी तो क्या भूले..
हम.. हम हैं.. क्यूंकि तुम, तुम हो..
कभी बंद हुई.. फिर खुल जाए.. टूटे डिब्बे का ढक्कन हो..

गाना अब तक जो सुनती हूँ.. अपने ही ऊपर लगता है..
कभी रोती हूँ... कभी हँस देती..
टूटी चूड़ी की खन खन हो..

हर याद तुम्हारी .. याद नहीं.

5 comments:

  1. "गाना अब तक जो सुनती हूँ.. अपने ही ऊपर लगता है.." - CLASSIC ... Great work

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  2. हम भूले भी तो क्या भूले..
    हम.. हम हैं.. क्यूंकि तुम, तुम हो..

    A Lovely write dear.. it touches those strings...

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  3. Miss Ragi Gulzar in full form... love the metaphor in "टूटे डिब्बे का ढक्कन"...way to go Daddy's gurl!

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